लेखनी डायरी- 29-12-2021 दिसम्बर
दिनांक: 29/12/2021
गांव की औरतें सुबह से लग जाती हैं काम पर। सुबह घर की साफ़-सफाई, कपड़े धोना, फिर तीन पहर का खाना और बर्तन धोना, बाकि बीच में चाय के घूँट तो चलते ही रहते हैं। यहाँ दोपहर का खाना लोग 11 से 12 के बीच में खा लेते हैं।
फिर खेत में जाकर भी काम करतीं हैं। खेत से चार बजे तक घर आ जाती हैं। यहाँ के पुरुष इतना काम नहीं करते जितना औरतें करतीं हैं। औरतें पुरुषों को पहले खाना परोस कर देतीं है, वो लोग उसी में खाना खाने के बाद हाथ धो लेते हैं और औरतें झूठी प्लेट उठाकर धोने के लिए रख देतीं है। यहाँ के पुरुष अपनी झूठी प्लेट तक उठाकर नहीं रखते। ऐसा ही रिवाज है यहाँ, क्या कर सकतें हैं। ज़्यादातर औरतें रसोई में ही खाना खाती हैं, पुरुषों के खाना खाने के बाद।
इतने व्यस्त दिनचर्या के बाद भी औरतें अपने लिए वक़्त निकाल ही लेतीं है, एक दूसरे से बात करतीं हैं और खुश रहतीं हैं। उन्होंने पतियों के विपरीत व्यवहार को स्वीकार कर लिया है और अब उन्हें इससे कोई शिकायत भी नहीं। उनके लिए यह सब सामान्य है, उनकी जिंदगी का हिस्सा है। उनके लिए उनके पति का उन पर ध्यान ना देना, प्यार भरी बातें नहीं करना कुछ मैटर नहीं करता, सच कहूँ तो उनके पास इतना समय ही नहीं है, जो वो इन सब बातों के बारे में सोचे और परेशान हो। जबकि शहर में जीवन इसके उलट है।
शहरों में हम लोग उम्मीदें ज्यादा करते हैं, शिकायतें उससे भी ज्यादा, बस चीजों को स्वीकारते नहीं है इसलिए जल्दी दुखी हो जाते हैं। गाँव के लोग चीजों को स्वीकारते ज्यादा हैं, सोशल भी ज्यादा हैं इसलिए यहाँ लोग ज्यादा खुश रहते हैं कठिन जीवन शैली के बावजूद भी। गाँव में कभी भी डिप्रेशन के मरीज नहीं मिलेंगे जबकि शहरों में ज़्यादातर लोग डिप्रेशन , मानसिक दबाव में रहते हैं। ऐसा नहीं कि इन्हें शिकायतें नहीं लेकिन वो एक दूसरे से बात करके ख़त्म हो जातीं हैं।
गाँव में आकर यह सीखने को मिलता है कि कभी-कभी परिस्तिथियों को स्वीकारने से जिंदगी आसान हो जाती है।
❤सोनिया जाधव